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मंगलवार, 18 मार्च 2014

बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ अतिथि-यज्ञ ~ ) - { Inspiring stories part - 2 }

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बुद्धिवर्धक कहानियाँ - भाग - १ की कहानी को पाठकों द्वारा पसंद किए जाने पर , आप सभी को धन्यवाद देता हूँ , जिन्होंने नहीं पढ़ा वो यहाँ पे क्लिक करें , तो मित्रों आगे बढ़ते है आज की नयी कहानी के साथ - जिसका नाम है - ( ~ अतिथि-यज्ञ ~ )  
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ये कहानी राजा रन्तिदेव की है। उन्होंने अतिथि-यज्ञ को इतनी महिमा प्रदान की कि कोई क्या करेगा ! अतिथि जो भी उनसे माँगते , वही उठाके दे देते।

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एक बार उनके राज्य में भयानक आकाल पड़ा। भूख के मारे और दरिद्रता के सताए लोगों का राजा के यहाँ ताँता लग गया। राजा ने उनके लिए अनाज के भंडार खोल दिए। राजकोष से धन बाँटा गया।
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जब अनाज न रहा , धन भी बँट गया , वस्त्र भी न बचे , तब रन्तिदेव को खाली महल देखकर रोना आ गया। इसलिए नहीं कि वे निर्धन हो गए , अपितु इसलिए कि यदि कोई अतिथि आ गया , ज़रूरतमंद ने हाथ फैलाया तो उसे देंगे क्या ?
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इस विचार के आते ही रानी और नन्हे राजकुमार को लेकर महल से निकल पड़े। नगर के बाहर निकल गए। उजड़े उद्द्यानों और निर्जन क्षेत्रों से भी आगे चले गए। ऐसी जगह पहुँचे जहाँ न अन्न था , न पानी। एक-एक करके चालीस दिन बीत गए। कभी भूख सताती तो सूखे पत्ते चबा लेते , कभी वे भी न मिलते।
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ऐसी दशा में राजा , रानी और राजकुमार हड्डियों के ढाँचे होकर रह गए। यहाँ तक कि चलना भी दूभर हो गया।
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चालीसवें दिन एक पेंड के नीचे बैठे थे। तभी एक सज्जन वहाँ आए। ताज़ा भोजन का एक थाल उनके पास था। उसने तीनों को भोजन परोसा। ताज़ा शीतल जल भी रखकर वह यह कहते हुए चल दिए - " आप भोजन करें , मुझे आगे यात्रा पे जाना है। "
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ये तीनों आचमन करके खाने को बैठे। रन्तिदेव का थाल को बढ़ता हाथ काँप उठा। मन में हूक-सी उठी-हाय ! आज क्या अतिथि को भोजन कराए बिना ही हमें खाना होगा ? जो आज तक नहीं किया , क्या वही आज करेंगे ?
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तभी दूर से दो ब्राह्मण आते दिखाई दिए। पास आकर उन्होंने कहा - " हमें भूख लगी है , क्या आप थोड़ा भोजन दे सकते हैं ? "
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रन्तिदेव खिले मुखड़े से बोले - " आप विराजिए और भोजन कीजिए। " कहकर अपने हिस्से का भोजन उन दोनों को बाँट दिया।
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अतिथियों की भूख शांत न हुई तो रन्तिदेव ने रानी का भोजन भी उन्हें परोस दिया , पानी भी पीला दिया। अतिथि तृप्त होकर चले गए। रन्तिदेव ने राजकुमार के हिस्से का भोजन तीन जगह बाँट लिया।
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तभी तीन भूखे यात्री आ गए। वे भी उन तीनों का भोजन खाकर चलते बने।
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थोडा - सा पानी हि बचा था। रन्तिदेव बोले - " थोडा-थोडा पानी पीकर ही निर्वाह किए लेते हैं। "
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तभी एक प्यासा यात्री आ गया। राजा ने सारा पानी उसे पीला दिया।
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तभी उनके अंदर से ध्वनि आई - ' रन्तिदेव ! अतिथि - यज्ञ की परीक्षा में तुम खरे उतरे। तुम सर्वस्व के अधिकारी हो। बोलो , क्या चाहिए ? '
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रन्तिदेव ने काँपते होंठों से कहा - " नहीं चाहिए मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए राजपाट और सुख-भोग। देना ही चाहते हो तो यही वर दो कि दुखी लोगों के ह्रदय में निवास कर सकूँ , उनके दुःख बाँट सकूँ , उन्हें सुख दे सकूँ। "
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भाइयों ! रन्तिदेव बनना सरल नहीं , तब भी अतिथि - यज्ञ की भावना तो ह्रदय में धारण करनी ही चाहिए। अतिथि - यज्ञ हमारी संस्कृति का एक आधार है। तभी तो आर्यजनों के जीवन में इस यज्ञ को नित्यकर्म माना गया है -
|| साईं ! इतना दीजिए , जा में कुटुम समाय ||
|| मैं भी भूखा ना रहूँ , साधु न भूखा जाय ||      

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                                                      कहानी लेखक - महात्मा श्री आनन्द स्वामी

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मित्रों व प्रिय पाठकों - कृपया अपने विचार टिप्पड़ी के रूप में ज़रूर अवगत कराएं - जिससे हमें लेखन व प्रकाशन का हौसला मिलता रहे ! धन्यवाद !


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14 टिप्‍पणियां:

  1. ज्ञानवर्धक और आज के समय में ऐसी कहानियों का अत्यधिक प्रचार और प्रसार होना चाहिए।
    जहाँ एक और कहानी में महानता का ज़िक्र है वहीँ दूसरी और बतलाया गया है कि किसी को किया हुआ कोई भी सहयोग व्यर्थ नहीं होता।
    सुन्दर बहुत सुन्दर पोस्ट।

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  2. बहुत शिक्षा प्रद और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर कहानी |बधाई |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय धन्यवाद व सदः स्वागत है !
      || जय श्री हरिः ||

      हटाएं
  3. बहुत सुन्दर और शिक्षाप्रद कहानी...

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत शिक्षा प्रद प्रस्तुति आशीष जी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद पूर्णिमा जी , जो आपका आगमन हुआ व स्वागत हैं !

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  5. उत्तर
    1. धन्यवाद शिखा जी , व स्वागत हैं !
      ॥ जय श्री हरि: ॥

      हटाएं

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